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साधना चमत्कार के लिए नहीं कर्म निर्जरा के लिए होती है.. आचार्यश्री उदार सागर जी..

साधना का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए: आचार्यश्री-
दमोह। इच्छाओं का निरोध करना तप कहलाता है, कर्म निर्जरा के लिए तप किया जाता है। ऐसा तप जिससे हमारी आत्मा का भला हो होता है। तप ऐसी ऊष्मा है जिससे आत्मा कर्म कलंक से मुक्त हो जाती है। तप करके अहम नहीं करना चाहिए, अन्यथा तप पतन का कारण बन सकता है। यह मंगल उदगार आचार्य श्री उदार सागर जी महाराज ने अभिव्यक्त किए।

श्री पारसनाथ दिगंबर जैन नन्हे मंदिर जी में धर्मसभा को संबोधित करते हुए शनिवार को आचार्य श्री उदार सागर जी महाराज ने तप के प्रकारों की व्याख्या करते हुए कहा कि तप 12 प्रकार के होते हैं। तप अहंकार को दूर करने के लिए होता है। यह श्रावक और साधु  दोनों के लिए प्रमुख है। दोनों ऐसे करते हैं, लेकिन तप करने के बाद इसका अहम नहीं करना चाहिए। अहम की भावना हमारे सारे तपशरण पर पानी फेरने का काम करती है। अतः तक कर्म निर्जरा की भावना से तप करना चाहिए। अहम हमारी श्रद्धा में मलिनता पैदा करता है। आचार्य श्री ने कहा कि श्रावक जब साधना करते हैं तू कुछ सिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। लेकिन साधना चमत्कार के लिए नहीं कर्म निर्जरा के लिए होती है। यदि साधना का उद्देश्य सिद्धियां प्राप्त करना हो तो साधक आत्म कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता 

आचार्य श्री ने एक उदाहरण के जरिए बात को समझाते हुए कहा कि दो साधक नदी किनारे साधना में लीन थे। एक साधक ने 12 वर्षों में पानी पर चलने की सिद्धि हासिल कर ली तथा उसे इस बात पर अहम भी हो गया। जबकि दूसरा साधक आत्म कल्याण की भावना से तप और साधना में लीन रहा। सिद्धि के अहंकार में डूबे पहल साधक ने पानी पर चलकर नदी के तट से दूसरे तट पर पहुंचते हुए दूसरे साधक को अपनी पानी पर चलने की सिद्धि की बात  बताई। तो दूसरे साधक ने कहा कि तुमने नदी के पार से उस पार आने में अपनी 12 वर्ष की साधना व्यर्थ कर दी। कुछ पैसे देकर नाव के सहारे तुम इस पार के उस पार पहुंच सकते थे। जिस पर पहले साधक को अपनी भूल का एहसास हुआ और इसके बाद वह आत्म कल्याण के मार्ग की साधना में जुट गया। आचार्य श्री ने कहा कि इसी तरह हमें भी अपनी साधना आत्मा के कल्याण की भावना से करना चाहिए।


रूप मद का भी अहंकार नहीं करना चाहिए- आचार्य श्री ने मद के आठवें प्रकार रूप मद की व्याख्या करते हुए कहा कि व्यक्ति को अपने सुंदर तन अर्थात रूप सौंदर्य का अहंकार नहीं होना चाहिए। शरीर का स्वभाव कुछ ऐसा होता है कि अभी कुछ और है बाद में कुछ और हो जाता है। ऐसे नश्वर शरीर को प्राप्त करके उसका अहम नहीं करना चाहिए। सफेद तन पर काला तिल सुंदर दिखता है वहीं काले शरीर पर सफेद निशान कुष्ठ का कारण बन जाता है। चक्रवर्ती सनत कुमार का उदाहरण देते हुए आचार्य श्री ने कहा कि सनत कुमार की सुंदरता की तारीफ सोधर्मइंद्र से सुनकर दो देवता स्वर्ग से सनत कुमार को देखने पहुंचे। 


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</!doctype> उस समय सनत कुमार अखाड़े में व्यायाम कर रहे थे उनका पूरा शरीर धूल से सना हुआ था। जिसे देख कर उन्होंने कहा जितनी तारीफ सुनी थी उससे भी अधिक सुंदर पाया जिसे सुनकर सनत कुमार को मन में अहम जाग उठा और उन्होंने अहंकार से भर कर कहा कि अभी आपने देखा ही क्या है। अभी जब हम तैयार होकर राजगद्दी पर बैठेंगे तब देखना। अहम में डूबे सनत कुमार जब सज संवर कर राज गद्दी पर बैठे और उन्होंने देवताओं की और देखकर अपनी प्रशंसा सुननी चाहिए तो अहम के चलते उनके शरीर में कुष्ठ की उत्पत्ति हो चुकी थी। जिसे देख कर उन्हें तत्काल वैराग्य भाव हो गया और वह मुनि दीक्षा लेकर तप के जरिये आत्मकल्याण के लिए निकल गए। आचार्य श्री ने कहा कि अपने स्वरूप की तरफ देखने के बजाय आत्मा के कल्याण हेतु धर्म साधना करनी चाहिए। अहम करके सम्यक श्रद्धा को मलिन नहीं करना चाहिए। सम्यक दर्शन को निर्मल बनाने के लिए अहम को त्याग करके ही धर्म साधना करनी चाहिए। श्रीमति मनीषा जैन की रिपोर्ट

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