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बाहुबली भगवान का मस्तकाभिषेक.. दस लक्षण पर्व में उत्तम तप धर्म के दिन मुनि संघ के सानिध्य में दमोह मे भगवान बाहुबली का मस्तकाभिषेक.. बांदकपुर में मन की शुद्धि सिखाता है उत्तम तप धर्म-विनय शास्त्री

 उत्तम तप धर्म, भगवान बाहुबली का मस्तकाभिषेक
दमोह। दिगंबर जैन पर्यूषण पर्व के सातवें दिन उत्तम तप धर्म मनाया गया। इस अवसर पर श्री पारस नाथ जैन नन्हें मंदिर जी मे मुनि श्री प्रयोग सागर जी एवं सुव्रत सागर जी महाराज के सानिध्य में प्रातः बेला में दस लक्षण पूजन उपरांत भगवान बाहुबली का वार्षिक मस्तकाभिषेक समारोह भक्ति भाव के साथ आयोजित किया गया।
भगवान बाहुबली के मस्तकाभिषेक में सकल दिगंबर जैन समाज द्वारा सहभागिता दर्ज करते हुए 1008 कलशों से अभिषेक किया गया। इस अवसर पर मुनि श्री प्रयोग सागर महाराज के मुखारविंद से शांति धारा संपन्न हुई। आज उत्तम तप धर्म पर मुनि श्री सुव्रतसागर जी ने श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन सिंघई मंदिर में दसलक्षण धर्म की सभा को संबोधित करते हुए कहा कि विश्व का कोई भी कार्य बिना त्याग तपस्या के चलता ही नहीं है जब तक सूर्य में पेड़ तपता नहीं है तब तक उसकी छाया किसी को मिलती नहीं अगर छाया प्राप्त करना हो अथवा किसी को दान करना हो तो उसके पूर्व सूर्य में सूर्य के ताप में तपना ही होगा। उत्तम तब धर्म कहलाता क्या है अपने धर्म को अपने संयम को अपने चरित्र को अगर हमें सुरक्षित रखना है तो तपस्या करनी ही होगी। अगर हम तपस्या नहीं करेंगे तो मोक्ष प्राप्त करने की तो बात दूर है घर गृहस्थी के कार्य भी निर्दोष संपन्न नहीं किया जा सकते। यदि पुरुषों को अपना धर्म सुरक्षित रखना है अथवा माता बहनों को अपना धर्म सुरक्षित रखना है तो दोनों को तपस्या करनी होगी अगर साधुओं को अपना धर्म सुरक्षित रखना है तो उनको साधु पने से ऊपर उठकर थोड़ी तपस्या तो करनी ही होगी।
मुनि श्री ने कहा कि जब भोजन पेट में पहुंचता है तो उसकी शक्ति उत्पन्न होती है और वह शक्ति हमें अगर सही दिशा में लगाने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ तो शक्ति का दुरुपयोग ही पाप कहलाता है शक्ति का सदुपयोग ही पुण्य कहलाता है अगर हम शक्ति का सदुपयोग नहीं कर पाएंगे तो निश्चित रूप से शक्ति का दुरुपयोग होगा जो पाप के लिए भोगों के लिए वासना के लिए निमंत्रण देगा। क्या तपस्या के अभाव में स्त्री का नारी का सील धर्म चरित्र नहीं रहेगा सुरक्षित नहीं रहेगा चरित्र के अभाव में यह पूरी समाज यह पूरा विश्व निश्चित रूप से पतन के गर्त में चला जाएगा। मुनिश्री ने अपनी बात को आगे बढ़ते हुए यह भी बताया कि आखिर हमारा तप त्याग तपस्या भ्रष्ट कहां से होती हैं अर्थात शास्त्रों में लिखा है कि इच्छाओं का दमन करना इच्छाओं का निरोध करना ही उत्तम तप धर्म है। संसार की विषयों की इच्छा का होना ही सबसे बड़ा संकट का समय होता है अगर आप देखें तो ऐसे कई दृष्टांत है जिनसे यह सिद्ध होता है कि आपकी संसार के विषयों की इच्छा बहुत बड़ा अनर्थ करने के लिए तैयार करती हैं जैसे कुछ दृष्टांत यहां पर दिए जा रहे हैं:-

1.कैकेई ने एक इच्छा व्यक्त की थी कि भारत को राज मिले और राम को वनवास मिले।
2. सीता ने स्वर्ण हिरण की इच्छा की थी परिणाम सीता का हरण हुआ.
3. महाभारत में राजा शांतनु की पत्नी सत्यवती ने अपने बेटे को हस्तिनापुर के सिंहासन पर बिठाने की इच्छा की थी परिणाम महाभारत हुआ।

ऐसे शास्त्रों में अनेक अनेक दृष्टांत हैं जो यह बताते हैं कि संसार के विषयों की इच्छा करने से हमें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ता है और हमें ही नहीं यह पूरे समाज को और यह पूरे विश्व को उन इच्छाओं का फल भोगना पड़ता है पर और इन सब दृष्टांतों से हमें शिक्षा लेनी चाहिए कि जैन धर्म ऐसी इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए ही शिक्षा देता है कि महाभारत जैसी स्थितियां समाज में निर्मित ना ही हों। अगर आप विचार करें आज सत्यवती नहीं है सीता नहीं है कैकेई भी नहीं किंतु इच्छाओं के मामले में आज हम सत्यवती सीता और कैकई को बहुत पीछे छोड़ चुके हैं जिसकी कोई औकात नहीं है उसकी भी इच्छाएं अनंत है और आकाश के समान अनंत इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने का नाम ही उत्तम तब धर्म है मुनि श्री ने बताया कि इन्हीं इच्छाओं के कारण हमारी आत्मा काली पड़ जाती है गंदी हो जाती है मैली हो जाती है और कई चीज को साफ करने के लिए तप करके धोना होता है।

मुनि श्री ने एक दृष्टांत देते हुए संपूर्ण समाज को समझाया कि एक राजा था उसने अपनी प्रजा पर सभासदों से और मंत्रिमंडल से यह कहा कि क्या आप लोग पूरी सामग्री लेकर के कोयले को धोकर के सफेद बन सकती है इस बात पर सब राजी  हो गए सभी लोग अपने-अपने घरों में कोयले को धोने लगे धोते-धोते बहुत समय निकल गया किंतु कोयला जस का तस काफी मेहनत करने के बाद भी कोयले में कोई परिवर्तन नहीं आया वह काला का काला ही रहा इस पर पूरी प्रजा ने राजा से अपनी असमर्थता जताई कि हम कोयले को धो करके सफेद नहीं कर सकते हम पराजित हो गए हैं तब राजा ने प्रजा से कहा कि अगर और कोई हो जो कोयले को धोकर सफेद बन सकता हो तो वह अपना प्रयास कर सकता है इस पर प्रजा तो तैयार न हुई किंतु एक मंत्री तैयार हो गया सभी लोगों ने उसे कोषा की कोयले को कैसे सफेद बनाओगे उसने कोयले को सफेद बनाने का संकल्प लिया उसने राज्यसभा में कोयले के ऊपर थोड़ा सा मिट्टी का तेल डाला और माचिस की तीली से उसमें आग लगा दी थोड़ी ही देर में कोई नजर नहीं लगा और जलने के उपरांत वह लाल हो गया और सूखने के बाद चांदी जैसी सफेद राख हो गई उसने राजा से कहा कि राजा कि देखो कोयल को धोकर नहीं किंतु तपाकर सफेद बनाया जा सकता है।
मुनि श्री ने दृष्टांत के माध्यम से धर्म सभा को समझने का प्रयास किया उन्होंने कहा कि जैसे कोयल को पानी से धोकर सफेद नहीं किया जा सकता है ऐसे ही हम अपने शरीर को और हम अपनी आत्मा को जल से धोकर साबुन शैंपू से धोकर सफेद नहीं बना सकते उज्जवल नहीं बना सकते किंतु त्याग तपस्या के माध्यम से ध्यान के माध्यम से अपने शरीर को तो नहीं अभी तो अपनी आत्मा को उज्ज्वल बना सकते हैं और इसके लिए हमें सर्वप्रथम अपने संसार की इच्छाओं पर विजय प्राप्त करनी होगी और इच्छाओं पर विजय प्राप्त करने का नाम ही है उत्तम तप धर्म अर्थात इच्छाओं की यमराज को उत्तम तप धर्म कहते हैं। मुनि श्री ने त्याग तपस्या से अपना धर्म सुरक्षित कैसे रहता है इस बात पर प्रकाश डालते हुए कहा कि एक दादाजी थे और उनका एक बेटा था बेटे के विवाह के उपरांत थी बेटे का देहांत हो गया घर में एक वृद्ध पिता और एक जवान विधवा स्त्री कुछ समय तक तो ठीक चल किंतु बाद में जवान विधवा बहू को विधवा रहना स्वीकार न था अगर वह किसी बाहरी व्यक्ति से विवाह करती है तो इसमें घर की बदनामी होगी इसलिए उसने अपने ससुर से कहा कि पिताजी मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं इस पर पिताजी ने अपनी बहू को दस दिनों के बाद जवाब देने को कहा।
बहू का एक बहुत अच्छा नियम था वह भोजन बनाती थी पहले अपने ससुर को भोजन कराती थी तदुपरांत अपना खुद का भोजन करती थी पिताजी के पहले उसने कभी भोजन नहीं किया ना ही वह भोजन करती थी। बहू ने जैसे ही अगले दिन भोजन तैयार किया पिताजी से निवेदन करने गई तो पिताजी ने कह दिया बेटा हमारा आज उपवास है इसका मतलब यह हुआ की बहू का अपने आप उपवास हो गया द्वितीय दिवस बहू ने फिर ऐसा किया पिताजी ने पुनः कह दिया कि बेटा मेरा उपवास है ऐसे करते-करते करते-करते प्रतिदिन बहू भोजन बनाती लेकिन पिताजी भोजन नहीं करते चार-पांच दिनों तक तो बहू सब सहन करती गई लेकिन भोजन के अभाव में बहू की हालत खराब हो गई 10 दिनों तक के पिताजी ने उपवास किये और 10 दिनों तक ही बहू के अपने आप उपवास हो गए 11वें दिन बहू ने फिर भोजन बनाया पिताजी से निवेदन करने गई तो पिताजी ने कहा कि बेटा आज तो हम भोजन बाद में करेंगे किंतु जो 10 दिन पहले आपने हमसे विवाह करने का प्रस्ताव रखा था उसका हम जवाब देना चाहते हैं इसको सुनकर बहू की आंखों में आंसू आ गए और पिताजी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना करने लगी मैं समझ गई की बात क्या है पिताजी ने भी उसे समझाया कि बेटा अगर हम त्याग तपस्या नहीं करेंगे और खाते पीते रहेंगे तो हमारे शरीर में बहुत बुराइयां उत्पन्न हो जाएंगी इसलिए अगर हमें मन-मन का खाने को मिलता है तो हमें त्याग तपस्या उपवास आदि करके अपने धर्म को सुरक्षित रखना चाहिए।

मन की शुद्धि सिखाता है उत्तम तप धर्म-विनय शास्त्री

बांदकपुर- पर्यूषण पर्व के सातवें दिन श्रद्धालुओं ने भक्ति भाव से श्री जी का अभिषेक पूजन दशलक्षण पूजा की सायंकालीन वेला में संगीतमय महाआरती, पं. विनय शास्त्री पटेरा द्वारा उत्तम तप धर्म पर प्रवचन में बताया कि 
भारत भूमि तपो प्रधान भूमि है, तप का महत्व न केवल धर्म और दर्शन तक ही सीमित है वरन् आधुनिक चिकित्सा प्रणाली भी तप को स्वीकार करती है। सभी धर्मों में और सभी ग्रंथों ने तप की महिमा बताई है। तप को उत्कृष्ट मंगल यानी पापों को नष्ट करने वाला कहा गया है। आज तप को लेकर अनेक भ्रांतियाँ एवं विकृतियाँ हैं। अतः तप के स्वरूप को जानना अनिवार्य है।

तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने तप की परिभाषा बताते हुए कहा कि इच्छाओं का निरोध करना तप है। जिससे कर्मों को तपाया जाए वह तप है। शरीर को केवल तपाए जाएँ तो वह ताप है तप नहीं। जैसे काँटों पर सोना, पंचाग्नि तप तपना, शरीर को मारना-पीटना, पेड़ के ऊपर चढ़कर उल्टा लटकना ताप है तप नहीं है। जैसे शरीर को कष्ट देना तप नहीं है ऐसे ही मानसिक यातनाएँ परवशता से सहन करना भी तप नहीं है। वह मात्र संताप है। तप का शाब्दिक अर्थ है 'त' यानी तत्काल 'प' यानी पहुँचना जिससे मंजिल तक शीघ्र पहुँचा जाए उसका नाम तप है।

जैसे अग्नि कचरे को तपाती है और स्वर्ण को निखारती है। इसी प्रकार तप की अग्नि भी विकारों को जलाती है और आत्मा रूपी स्वर्ण को निखारती है। तप से कर्म नष्ट होते हैं। जैसे आम दो तरह से पकाया जाता है- एक तो कच्चे आम को तोड़कर घासादि में लपेटकर पकाया जाता है और दूसरा जब समय आता है तो स्वतः पक जाता है। ठीक इसी प्रकार कर्म क्षय भी दो प्रकार से होता है- जप-तप आदि के पुरुषार्थ से जल्दी क्षय करना और पुरुषार्थ के अभाव में कर्म-फल को भुगतकर क्षय करना। जैसे मक्खन से घी निकालने के लिए बर्तन को तपाया जाता है उसी प्रकार आत्मा की शुद्धि के लिए शरीर को तपाना भी आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।
किसी भी कार्य के परिणाम का आधार उसकी विधि होती है। विधिपूर्वक किया गया कार्य ही सफल व सार्थक होता है। प्राचीन काल में बेले-तेले के तप में देवता हाजिर थे पर आज तो मासोपवास भी कर लो तो देवता तो क्या देवदूत भी नहीं आते। तप का अनुष्ठान मात्र आत्मशुद्धि के लिए होना चाहिए। सम्यक् प्रकार से कषाय रहित चित्त की शुद्धि के साथ जो क्रिया की जाती है वह अमृत तुल्य होती है। तप हम इस लोक में कामना या स्वार्थ की पूर्ति के लिए नहीं और न ही परलोक के लिए करें, ना ही कीर्ति-प्रशंसा के लिए करें। तप तो फलाशा से मुक्त होकर मात्र आत्मा की शुद्धि के लिए होना चाहिए। तप मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं- पहला तामसिक तप, जो अपने शत्रु को आर्थिक, मानसिक व शारीरिक कष्ट पहुँचाने के लिए किया जाता है; दूसरा राजसी तप, जो संकट निवारण एवं लक्ष्मी तथा यशकीर्ति के लिए किया जाता है और तीसरा सात्विक तप, जो सिर्फ आत्मशुद्धि के लिए किया जाता है और यही श्रेष्ठ तप होता है।

तप से पापों का नाश होता है। तप का महान् लाभ है तप से निर्जरा (कर्म का क्षय) होती है। एक बार एक राजा ने अपने विशिष्ट वैद्य को एक जैनाचार्य की सेवा में भेजा और वैद्य से कह दिया दवाई चाहे कितनी मँहगी क्यों न हो तुम सेवा में कमी मत रखना। वैद्य सारी औषधियाँ लेकर जैनाचार्य और उनके 500 शिष्यों के साथ ग्राम-ग्राम, नगर-नगर विचरने लगा। दिन और महीने बीत गए। वह हैरान है कि आज तक मुझे किसी ने सेवा का मौका नहीं दिया। आखिर एक दिन वैद्य ने आचार्य से अर्ज की कि मेरे पास एक-एक रोग को मिटाने की हजार दवाएँ हैं। आचार्य ने कहा- तुम्हारे पास तो रोग होने के पश्चात् मिटाने की दवा है। पर हमारे पास तो रोग ही ना हो ऐसी दवा है। वह दवा है हमारा तप। भूख लगने पर ही भोजन करते हैं और भोजन करते समय भूख से कम खाते हैं अतः हम सदा स्वस्थ रहते हैं।

उत्तम तप का पहला लक्षण है मानसिक रूप से पूरे तैयार होने के बाद तप प्रारम्भ करें। किसी भी अनुष्ठान को करने से पहले मन को उस अनुष्ठान से प्रभावित करना पड़ता है। अनुष्ठान के क्रिया-काल में मन को उल्लसित रखें। तप करते समय पूर्ण निष्ठा व स्थिरता हो। जैसे पिक्चर देखते हुए थकान महसूस नहीं होती क्योंकि तन से पहले मन वहाँ पहुँच जाता है और पिक्चर पूरी होते ही काया बाहर आ जाती है, पर मन वहीं रहता है। उत्तम तप का दूसरा लक्षण है कि तप ज्ञानपूर्वक किया जाए जिससे कषायों की मंदता हो एवं आत्मशुद्धि हो सके।

"किये बिना कोई काम आसान नहीं होता, 
तपे बिना कोई मानव महान नहीं होता"
तत्पश्चात जैसी करनी वैसी भरनी नाटिका का मंचन जैन समाज के स्थानीय लोगों द्वारा किया गया

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