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कुंडलपुर में गणाचार्य श्री विराग सागर जी को विंनयाजलि.. धर्म की रक्षा के लिए, रत्नत्रय की रक्षा के लिए संल्लेखना ली जाती.. आचार्य श्री समयसागर जी महाराज..

 कुंडलपुर में गणाचार्य श्री विराग सागर जी को विंनयाजलि

 दमोह ।सुप्रसिद्ध सिद्ध क्षेत्र कुंडलपुर में परम पूज्य गणाचार्य श्री विरागसागर जी महाराज के समाधिमरण पर एक विन्यांजलि सभा का आयोजन किया गया। विनयांजलि सभा में परम पूज्य आचार्य श्री समय सागर जी महाराज ने विनयांजलि व्यक्त करते हुए कहा सर्वविदित है कि जिसका जन्म होता है उसका अनिवार्य रूप से मरण हुआ करता है और यह जन्म और मरण की परंपरा आज की नहीं है अनंत कालीन परंपरा चली आ रही है। बीज और वृक्ष की जो परंपरा है उसी प्रकार जन्म और मरण की परंपरा चल रही है। कर्म के अधीन होने के कारण बार-बार संसारी प्राणी जन्म लेता है वह मरण को प्राप्त करता है। किंतु उस मरण से और जन्म से ऊपर उठने के लिए आगमकारों ने बहुत बड़ा उपकार किया है जिनेंद्र भगवान की वाणी को सुरक्षित रखने का पुरुषार्थ किया है और सर्वप्रथम आगम की जो रचना होती है ग्रंथ की अपेक्षा से गणधर परमेष्ठी के द्वारा ही आगम की रचना होती है वह भी दिव्य ध्वनि का आलंबन लेकर आगम की रचना करते हैं।

गणधर परमेष्ठी और वहां से यह प्रभु की वाणी जिनवाणी जिसे बोलते वहां से प्रवाहित होते हुए आज तक यहां पर आई है। उस आगम के अनुसार ही हम कुछ विचार यहां रख रहे हैं जो प्रासंगिक हैं कि संलेखना ली जाती है सल्लेखना दी नहीं जातीऔर उमा स्वामी महाराज ने ऐसा कहा है संलेखना जो ली जाती है उसके लिए बहुत सारे कारण है एक तो उपसर्ग आ जाए अकाल पड़ जाए वृद्धावस्था आ जाए भयानक कोई रोग आ जाए तो उस समय धर्म की रक्षा के लिए ,रत्नात्रय की रक्षा के लिए अथवा व्रत की रक्षा के लिए यह संलेखना ली जाती है ।जब तक शरीर में क्षमता रहती है शरीर साथ देता है जब तक रत्नात्रय की रक्षा अथवा धर्म की आराधना की जाती है। और यथायोग जो साधक होते हैं वृती होते हैं अवृति हो सारे के सारे अपना जीवन व्यतीत करते हैं ज्यो ही शरीर अपना काम करना बंद कर देता है उस समय शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करके धर्म की रक्षा करने के लिए संलेखना को अंगीकार करता है साधक । 

इस प्रकार संक्षिप्त रूप से भी संलेखना होती प्रत्याख्यान जिसको बोलते वृहद रूप से भी हो सकता है तत्काल शरीर के प्रति जो ममत्व भाव था उसको छोड़ करके प्रतिज्ञा कर लेता है संघ के प्रति भी जो लगाव है संचालक आदि कर्तव्य के प्रति भाव आते रहते हैं उसका विचार कर लेता है यह विधि संक्षेप मानी जाती है और रोग आदि के आने पर संक्षेप प्रत्याख्यान हीं होता है यदि नहीं है वृद्धावस्था है तो धीरे-धीरे आहार का त्याग करते-करते समाधि संलेखना ली जाती है । संलेखना भी दो तरह की हुआ करती है एक काय  संल्लेखना और कषाय संल्लेखना। संल्लेखना का अर्थ क्रश करना होता है शरीर को धीरे-धीरे क्रश किया जाता है। उसके प्रति जो ममत्व भाव होता है उसका भी परिहार किया जाता है । इसको कषाय संलेखना के अंतर्गत लेते हैं..
गुरुदेव ने एक बार कहा था एक बार क्या कई बार कहा स्वाध्याय के दौरान प्रसंग बनाया है वह यह है साधक जिस दिन से दीक्षित होता है या व्रत को अंगीकार करता है उसी दिन से वह कषाय को क्षीण करता चला जाता है तब कहीं जाकर उसकी कषाय संलेखना पूर्ण होती है। क्योंकि कषाय को राग द्वेष की निवृत्ति को ही चारित्रको अंगीकार किया जाता है । चारित्र को अंगीकार  करने के उपरांत भी यदि राग द्वेष का श्रमण नहीं होता तो काय संल्लेखना नहीं मानी जाती है ।इसलिए हमें हमेशा गुरुदेव का कहना है अलर्ट रहना चाहिए जीवन चला जा रहा है एक-एक होते समाप्त होता जा रहा है इसलिए संलेखना का अर्थ मरण होता है। इस अवसर पर कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी के पदाधिकारी सदस्यों ने भी विनयांजलि प्रस्तुत की।

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