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अंग्रेजों के जमाने में 137 साल पहले बनी इमारत हाकगंज बरांडा का ध्वस्त गेट क्या फिर से बन पाएगा..? क्या आपको पता है दमोह बरंडा के निर्माण का यह इतिहास..!

क्या आपको पता है हाकगंज बरंडा का यह इतिहास..

दमोह/ शहर के बीचों बीच शनिवार की देर रात एक बड़ा हादसा हुआ जब सदी भर से ज्यादा पुरानी एक इमारत जिसका ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्व था जिसे देखने के लिए सैलानी आया करते थे जो अतीत के कई किस्से कहानी अपने गर्त में छिपाए थी चन्द सेकेंड में धराशायी हो गई और इस घटना ने इलाके से एक ऐतिहासिक स्थल की यादें छीन ली। दमोह शहर के व्यस्ततम इलाको में शामिल हाकगंज बरंडा अब अपने अतीत की कहानी तो कहेगा लेकिन उस अतीत की गवाही देने वाला 137 साल पुराना बरंडा का द्वार लोगो को देखने  ही मिलेगा और इसमें लगे शिलालेख भी नही।

 शनिवार की रात इस ऐतिहासिक गेट के बाजू से चल रहे निर्माण कार्य के दौरान द्वार भरभरा कर गिर गया और इतिहास मलबे में तब्दील हो गया। क्या है इस हाकगंज बरंडा का इतिहास तो जानिए..


  इतिहास और पुरातत्व के जानकार बताते हैं कि दमोह जिला ऐतिहासिक जिला है जिसका पुरातात्विक महत्व भी है और जिले भर में फैली पूरा सम्पदा इस जिले के महत्व का बयान करती है।  महाभारत काल हो गोंडवाना साम्राज्य हो या फिर कलचुरी कालीन युग हर दौर में दमोह जिले का नाम अंकित है। आज़ादी की लड़ाई का बिगुल देश मे 1857 की क्रांति से माना जाता है लेकिन उससे पहले 1847 में इस जिले के हिंडोरिया के राजा किशोर सिंह ने अंग्रेजो के खिलाफ बिगुल बजा दिया था लिहाजा देश मे स्वतन्त्रता समर में बड़ी आहुति दमोह जिले में हुई। बताया जाता है कि इस जिले को अंग्रेज कभी पूरी तरह से कब्जे में नही ले पाए। 


ब्रिटिश हुकूमत काल की बात करें तो इस काल के कई स्मारक इमारते आज भी इस जिले में हैं कई सरंक्षित है तो कई वक़्त के साथ अपनी पहचान खत्म कर चुकी है। इनमे से एक हाकगंज बरंडा भी है। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि ब्रिटिश हुक्मरानो ने 1855 में कमिश्नर सी एच टी कासवटे के नेतृत्व में दमोह में कैम्प लगाया था, और इस कैम्प के दौरान अंग्रेजो ने यहाँ स्थायी निवास बना लिया। साल 1961 में मध्य प्रान्त के गठन हुआ और दमोह को जिला का दर्जा मिला। इसी समयावधि में अंग्रेजो ने शहर के टाउन हॉल का निर्माण कराया।

और इसी के साथ हाकगंज बरंडा बनवाया। ये जगह मौज़ूदा गांधी चौक के नजदीक है, हाकगंज का नाम ब्रिटिश हुकूमत के  कमिश्नर मिस्टर हॉक के नाम पर रखा गया। ये एक बड़ा परिसर था और इसमें तीन भव्य द्वार बनाये गए थे जिनकी ऊंचाई 100 फ़ीट थी और पत्थरों की खूबसूरत नक्काशी के साथ इन तीनो द्वारो में बड़े दरवाजे भी लगाये गए थे। मिस्टर हॉक इसी परिसर में बैठ कर अपनी सल्तनत चलाया करते तो परिसर में हाट बाजार भी लगा करता था। शाम होने के बाद बाजार बंद और विशाल दरवाजो को बंद कर दिया जाता था। ये वो स्थान था जहां से कमिश्नर हॉक पूरे जिले का संचालन करते थे। मतलब जिले का केंद्र बिंदू हाकगंज ही था। वक़्त बढ़ता गया और हाकगंज न केवल दमोह बल्कि पूरे देश मे फेमस हो गया।

1876 में बने इस हाकगंज के गेट इसकी सुंदरता और मजबूती के लिए जाने जाते रहे। इसी दौर में देश भर के सुंदर सर्किट हाउस में शुमार दमोह की जटाशंकर पहाड़ी पर बने सर्किट हाउस , जिला न्यायालय की सुंदर इमारत , मौजूदा कलेक्टर बंगला का निर्माण भी अंग्रेजो ने कराया। हाकगंज इन तमाम इमारतों का बादशाह माना जाता था और वजह की तत्कालीन प्रशासन यही से चलता था तो इस इलाके का रौब स्वाभाविक था। समय निकलता गया औऱ 1947 में देश आजाद हो गया, अंग्रेज चले गए लेकिन वो अपने द्वारा बनवाये गए स्मारकों और इमारतों को छोड़ गए। दशकों से इसी इलाके में बाजार संचालित होता चला आता रहा था लिहाजा ये इलाका शहर का प्रमुख बाजार बन गया। इसके आसपास घण्टाघर नया बाजार और उमा मिस्त्री तलैया का इलाका मुख्य बाजार बन गए, आज भी शहर इन्ही इलाको में केंद्रित है। 

बात हाकगंज की ही करें तो कल तक इसके तीनो द्वार सुरक्षित खड़े थे अब एक मुख्य द्वार धराशायी हो गया है जबकि दो द्वार अब भी हैं लेकिन स्थानीय रहवासियो ने इन्हें कब्जे में ले लिया है और कहा जाए तो प्रशासनिक अनदेखी की वजह से इनका भविष्य भी खतरे में है। सालो से यहां इन गेट्स के नींचे जो दुकाने लगती है वो पुराने समय की याद दिलाती हैं, जमीन पर बोरी फट्टी बिछाकर अनाज मसाले बेंचने का परम्परागत काम आज भी यहाँ होता है। महानगरों से आने वाले लोगो के लिए हाकगंज के साथ ये पुरानी पद्धति का बाजार देखना भी रोमांचित करता है। हालांकि समय के साथ बदलाव भी देखने को मिले जब 100 फिट ऊँचाई वाले ये द्वार लगातार छोटे होते गए, ऊंचाई कम हुई तो कब्जे भी हुए औऱ अब इसका मुख्य द्वार समाप्त ही हो गया। 

  बहरहाल इतिहास और ऐतिहासिक धरोहरें किस तरह देश भर में खत्म हुई उसका उदाहरण ये स्थान है जब सरकारों औऱ स्थानीय प्रशासन की अनदेखी की वजह से ये स्थान धीरे धीरे खत्म होते जा रहे हैं। ऐसा नही है कि आज़ादी के बाद दमोह का रसूख कम हुआ हो बल्कि प्रायः प्रदेश की हर सरकार को दमोह ने मंत्री दिए हैं कभी एक तो कभी दो कभी तीन तीन मंत्री इसी जिले से रहे। बीते पांच साल यानी 2019 से 2023 तक केंद्र में भी प्रहलाद पटेल के रूप में केंद्रीय मंत्री इसी जिले से रहे। पटेल के पास लंबे समय तक संस्कृति एवं पर्यटन मंत्रालय रहा और इस तरह के स्मारकों के  सरक्षण का जिम्मा भी, उन्होंने जिले के कई महत्वपूर्ण स्मारकों धरोहरों के लिये ठोस काम भी किए लेकिन हाकगंज उनकी निगाहों से बचता रहा।


वर्त्तमान समय मे सूबे की सरकार में जिले से दो मंत्री पशुपालन मंत्री लखन पटेल और संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री धर्मेंद्र लोधी है। लोधी के विभाग में ही ये स्मारक आते है बावजूद इसके उनके गृह जिले के स्मारकों के हालात ये है ऐसे में अब उम्मीद किससे की जाए कहना मुश्किल होगा। आलेख महेंद्र दुबे

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